30-11-92  ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन

सर्व खज़ानों से सम्पन्न बनो - दुआए दो, दुआए लो

दुआओं के खज़ाने से सम्पन्न बनाने वाले बापदादा अपने ‘ज्ञानी तू आत्मा’ बच्चों प्रति बोले -

आज सर्व खज़ानों के मालिक अपने सम्पन्न बच्चों को देख रहे हैं। हर एक बच्चे को अनेक प्रकार के अविनाशी अखुट खज़ाने मिले हैं और ऐसे खज़ाने हैं, जो सर्व खज़ाने अब भी हैं और आगे भी अनेक जन्म खज़ानों के साथ रहेंगे। जानते हो कि खज़ाने कौनसे और कितने मिले हैं? खज़ानों से सदा प्राप्ति होती है। खज़ानों से सम्पन्न आत्मा सदा भरपूरता के नशे में रहती है। सम्प-न्नता की झलक उनके चेहरे में चमकती है और हर कर्म में सम्पन्नता की झलक स्वत: ही नजर आती है। इस समय के मनुष्या-त्माओं को विनाशी खज़ानों की प्राप्ति है, इसलिए थोड़ा समय नशा रहता है और साथ नहीं रहता है। इसलिए दुनिया वाले कहते हैं-खाली होकर जाना है। और आप कहते हो कि भरपूर होकर जाना है। आप सबको बापदादा ने अनेक खज़ाने दिये हैं।

सबसे श्रेष्ठ पहला खज़ाना है-ज्ञान-रत्नों का खज़ाना। सबको यह खज़ाना मिला है ना। कोई वंचित तो नहीं रह गया है ना। इस ज्ञान-रत्नों के खज़ाने से विशेष क्या प्राप्ति कर रहे हो? ज्ञान-खज़ाने द्वारा इस समय भी मुक्ति-जीवन्मुक्ति की अनुभूति कर रहे हो। मुक्तिधाम में जायेंगे वा जीवन्मुक्त देव पद प्राप्त करेंगे-यह तो भविष्य की बात हुई। लेकिन अभी भी मुक्त जीवन का अनुभव कर रहे हो। कितनी बातों से मुक्त हो, मालूम है? जो भी दु:ख और अशान्ति के कारण हैं, उनसे मुक्त हुए हो। कि अभी मुक्त होना है? अभी कोई विकार नही आता? मुक्त हो गये। अगर आता भी है तो विजयी बन जाते हो ना। तो कितनी बातों से मुक्त हो गये हो! लौकिक जीवन और अलौकिक जीवन-दोनों को साथ रखो तो कितना अन्तर दिखाई देता है! तो अभी मुक्ति भी प्राप्त की है और जीवन्मुक्ति भी अनुभव कर रहे हो। अनेक व्यर्थ और विकल्प, विकर्मों से मुक्त बनना-यही जीवन्मुक्त अवस्था है। कितने बन्धनों से मुक्त हुए हो? चित्र में दिखाते हो ना-कितने बन्धनों की रस्सियां मनुष्यात्माओं को बंधी हुई हैं! यह किसका चित्र है? आप तो वह नहीं हो ना। आप तो मुक्त हो ना। तो जीवन में रहते जीवन्मुक्त हो गये। तो ज्ञान के खज़ाने से विशेष मुक्ति-जीव-न्मुक्ति की प्राप्ति का अनुभव कर रहे हो।

दूसरा-याद अर्थात् योग द्वारा सर्व शक्तियों का खज़ाना अनुभव कर रहे हो। कितनी शक्तियाँ हैं? बहुत हैं ना! आठ शक्तियाँ तो एक सैम्पल रूप में दिखाते हो, लेकिन सर्व शक्तियों के खज़ानों के मालिक बन गये हो।

तीसरा-धारणा की सब्जेक्ट द्वारा कौनसा खज़ाना मिला है? सर्व दिव्य गुणों का खज़ाना। गुण कितने हैं? बहुत हैं ना। तो सर्व गुणों का खज़ाना। हर गुण की, हर शक्ति की विशेषता कितनी बड़ी है! हर ज्ञान-रत्न की महिमा कितनी बड़ी है!

चौथी बात-सेवा द्वारा सदा खुशी के खज़ाने की अनुभूति करते हो। जो सेवा करते हो उससे विशेष क्या अनुभव होता है? खुशी होती है ना। तो सबसे बड़ा खज़ाना है अविनाशी खुशी। तो खुशी का खज़ाना सहज, स्वत: प्राप्त होता है।

पांचवा-सम्बन्ध-सम्पर्क द्वारा ब्राह्मण परिवार के भी सम्पर्क में आते हो, सेवा के भी सम्बन्ध में आते हो। तो सम्बन्ध-सम्पर्क द्वारा कौनसा खज़ाना मिलता है? सर्व की दुआओं का खज़ाना मिलता है। यह दुआओं का खज़ाना बहुत बड़ा खज़ाना है। जो सर्व की दुआओं के खज़ानों से भरपूर है, सम्पन्न है उसको कभी भी पुरूषार्थ में मेहनत नहीं करनी पड़ती। पहले है मात-पिता की दुआए और साथ में सर्व के सम्बन्ध में आने से सर्व द्वारा दुआए। सबसे बड़े ते बड़े तीव्र गति से आगे उड़ने का तेज यन्त्र है-’दुआए’। जैसे-साइन्स का सबसे बड़े ते बड़ा तीव्र गति का रॉकेट है। लेकिन दुआओं का रॉकेट उससे भी श्रेष्ठ है। विघ्न जरा भी स्पर्श नहीं करेगा, विघ्न-प्रूफ बन जाते। युद्ध नहीं करनी पड़ती। सहज योगयुक्त, युक्तियुक्त हर कर्म, बोल, संकल्प स्वत: ही बन जाते हैं। ऐसा यह दुआओं का खज़ाना है। सबसे बड़ा खज़ाना इस संगमयुग के समय का खज़ाना है।

वैसे खज़ाने तो बहुत हैं। लेकिन जो खज़ाने सुनाये, सिर्फ इन खज़ानों को भी अपने अन्दर समाने की शक्ति धारण करो तो सदा ही सम्पन्न होने कारण जरा भी हलचल नहीं होगी। हलचल तब होती है जब खाली है। भरपूर आत्मा कभी हिलेगी नहीं। तो इन खज़ानों को चेक करो कि सर्व खज़ाने स्वयं में समाये हैं? इन सभी खज़ानों से भरपूर हो? वा कोई में भरपूर हो, कोई में थोड़ा अभी भरपूर होना है? खज़ाने मिले तो सभी को हैं ना। एक द्वारा, एक जैसे खज़ाने सभी को मिले हैं। अलग-अलग तो नहीं बांटा है ना। एक को लाख, दूसरे को करोड़ दिया हो-ऐसे तो नहीं है ना? लेकिन एक हैं सिर्फ लेने वाले-जो मिलता है लेते भी हैं लेकिन मिला और खाया-पिया, मौज किया और खत्म किया। दूसरे हैं जो मिले हुए खज़ानों को जमा करते-खाया-पिया, मौज भी किया और जमा भी किया। तीसरे हैं-जमा भी किया, खाया-पिया भी लेकिन मिले हुए खज़ाने को और बढ़ाते जाते हैं। बाप के खज़ाने को अपना खज़ाना बनाए बढ़ाते जाते। तो देखना है कि मैं कौन हूँ-पहले नम्बर वाला, दूसरे वा तीसरे नम्बर वाला?

जितना खज़ाने को स्व के कार्य में या अन्य की सेवा के कार्य में यूज़ करते हो उतना खज़ाना बढ़ता है। खज़ाना बढ़ाने की चाबी है-यूज करना। पहले अपने प्रति। जैसे-ज्ञान के एक-एक रत्न को समय पर अगर स्व प्रति यूज़ करते हो, तो खज़ाना यूज़ करने से अनुभवी बनते जाते हो। जो खज़ाने की प्राप्ति है वह जीवन में अनुभव की ‘अथॉरिटी’ बन जाती है। तो अथॉरिटी का खज़ाना एड (Add,जमा) हो जाता है। तो बढ़ गया ना। सिर्फ सुनना और बात है। सुनना माना लेना नहीं है। समाना और समय पर कार्य में लगाना-यह है लेना। सुनने वाले क्या करते और समाने वाले क्या करते-दोनों में महान अन्तर है।

सुनने वालों का बापदादा दृश्य देखते हैं तो मुस्कुराते हैं। सुनने वाले समय पर परिस्थिति प्रमाण वा विघ्न प्रमाण, समस्या प्रमाण प्वाइन्ट को याद करते हैं कि बापदादा ने इस विघ्न को पार करने के लिए ये-ये पॉइंट्स दी हैं। ऐसा करना है, ऐसा नहीं करना है-रिपीट करते, याद करते रहते हैं। एक तरफ प्वाइन्ट रिपीट करते रहते, दूसरे तरफ वशीभूत भी हो जाते हैं। बोलते हैं-ऐसा नहीं करना है, यह ज्ञान नहीं है, यह दिव्य गुण नहीं है, समाने की शक्ति धारण करनी है, किसको दु:ख नहीं देना है। रिपीट भी करते रहते हैं लेकिन फेल भी होते रहते हैं। अगर उस समय भी उनसे पूछो कि ये राइट है? तो जवाब देंगे-राइट है नहीं लेकिन हो जाता है। बोल भी रहे हैं, भूल भी रहे हैं। तो उनको क्या कहेंगे? सुनने वाले। सुनना बहुत अच्छा लगता है। प्वाइन्ट बड़ी अच्छी शक्तिशाली है। लेकिन यूज़ करने के समय अगर शक्तिशाली प्वाइन्ट ने विजयी नहीं बनाया वा आधा विजयी बनाया तो उसको क्या कहेंगे? सुनने वाले कहेंगे ना।

समाने वाले जैसे कोई परिस्थिति या समस्या सामने आती है तो त्रिकालदर्शी स्थिति में स्थित हो स्व-स्थिति द्वारा पर-स्थिति को ऐसे पार कर लेते जैसे कि कुछ था ही नहीं। इसको कहा जाता है समाना अर्थात् समय पर कार्य में लगाना, समय प्रमाण हर शक्ति को, हर प्वाइन्ट को, हर गुण को ऑर्डर से चलाना। जैसे कोई स्थूल खज़ाना है, तो खज़ाने को स्वयं खज़ाना यूज़ नहीं करता लेकिन खज़ाने को यूज़ करने वाली मनुष्यात्माए हैं। वो जब चाहें, जितना चाहें, जैसे चाहें, वैसे यूज़ कर सकती हैं। ऐसे यह जो भी सर्व खज़ाने सुनाए, उनके मालिक कौन? आप हो वा दूसरे हैं? मालिक हैं ना। मालिक का काम क्या होता है? खज़ाना उसको चलाये या वो खज़ाने को चलाये? तो ऐसे हर खज़ाने के मालिक बन समय पर ज्ञानी अर्थात् समझदार, नॉलेजफुल, त्रिकालदर्शी होकर खज़ाने को कार्य में लगाओ। ऐसे नहीं कि समय आने पर ऑर्डर करो सहन शक्ति को और कार्य पूरा हो जाये फिर सहन शक्ति आये। समाने की शक्ति जिस समय, जिस विधि से चाहिए-उस समय अपना कार्य करे। ऐसे नहीं-समाया तो सही लेकिन थोड़ा-थोड़ा फिर भी मुख से निकल गया, आधा घण्टा समाया और एक सेकेण्ड समाने के बजाए बोल दिया। तो इसको क्या कहेंगे? खज़ाने के मालिक वा गुलाम?

सर्व शक्तियाँ बाप के अधिकार का खज़ाना है, वर्सा है, जन्म सिद्ध अधिकार है। तो जन्मसिद्ध अधिकार का कितना नशा होता है! छोटा-सा राजकुमार होगा, क्या खज़ाना है, उसका पता भी नहीं होगा लेकिन थोड़ा ही स्मृति में आने से कितना नशा रहता-मैं राजा का बच्चा हूँ! तो यह मालिकपन का नशा है ना। तो खज़ानों को कार्य में लगाओ। कार्य में कम लगाते हो। खुश रहते हो-भरपूर है, सब मिला है। लेकिन कार्य में लगाना, उससे स्वयं को भी प्राप्ति कराना और दूसरों को भी प्राप्ति कराना-उसमें नम्बरवार बन जाते हैं। नहीं तो नम्बर क्यों बने? जब देने वाला भी एक है, देता भी सबको एकरस है, फिर नम्बर क्यों? तो बापदादा ने देखा-खज़ाने तो बहुत मिले हैं, भरपूर भी सभी हैं, लेकिन भरपूरता का लाभ नहीं लेते। जैसे लौकिक में भी कइयों को धन से आनन्द या लाभ प्राप्त करने का तरीका आता है और कोई के पास होगा भी बहुत धन लेकिन यूज़ करने का तरीका नहीं आता, इसलिए होते हुए भी जैसे कि नहीं है। तो अन्डरलाइन क्या करना है? सिर्फ सुनने वाले नहीं बनो, यूज़ करने की विधि से अब भी सिद्धि को प्राप्त करो और अनेक जन्मों की सद्गति प्राप्त करो।

दिव्य गुण भी बाप का वर्सा है। तो प्राप्त हुए वर्से को कार्य में लगाना क्या मुश्किल है। ऑर्डर करो। ऑर्डर करना नहीं आता? मालिक को ही ऑर्डर करना आता। कमजोर को ऑर्डर करना नहीं आता, वह सोचेगा-कहूँ वा नहीं कहूँ, पता नहीं मदद मिलेगी वा नहीं मिलेगी...। अपना खज़ाना है ना। बाप का खज़ाना अपना खज़ाना है। या बाप का है और हमारा नहीं है? बाप ने किसलिए दिया? अपना बनाने के लिए दिया या सिर्फ देखकर खुश होने के लिए दिया? कर्म में लगाने के लिए मिला है। रिजल्ट में देखा जाता है कि सभी खज़ानों को जमा करने की विधि कम आती है। ज्ञान का अर्थ भी यह नहीं कि प्वाइन्ट रिपीट करना या बुद्धि में रखना। ज्ञान अर्थात् समझ-त्रिकालदर्शी बनने की समझ, सत्य-असत्य की समझ, समय प्रमाण कर्म करने की समझ। इसको ज्ञान कहा जाता है।

अगर कोई इतना समझदार भी हो और समय आने पर बेसमझी का कार्य करे-तो उसको ज्ञानी कहेंगे? और समझदार अगर बेस-मझ बन जाये तो उसको क्या कहा जायेगा? बेसमझ को कुछ कहा नहीं जाता। लेकिन समझदार को सभी इशारा देंगे कि-यह समझदारी है? तो ज्ञान का खज़ाना धारण करना, जमा करना अर्थात् हर समय, हर कार्य, हर कर्म में समझ से चलना। समझा? तो आप महान समझदार हो ना। ‘ज्ञानी तू आत्मा’ हो या ‘ज्ञान सुनने वाली तू आत्मा’ हो? चेक करो कि ऐसे ज्ञानी तू आत्मा कहाँ तक बने हैं-प्रैक्टिकल कर्म में, बोलने में...। ऐसे तो सबसे हाथ उठवाओ तो सब कहेंगे-हम लक्ष्मी-नारायण बनेंगे। कोई नहीं कहेगा कि हम राम-सीता बनेंगे। लेकिन कोई तो बनेंगे ना। सभी कहेंगे-हम विश्व-महाराजा बनेंगे। अच्छा है, लक्ष्य ऐसा ही ऊंचा रहना चाहिए। लेकिन सिर्फ लक्ष्य तक नहीं, लक्ष्य और लक्षण समान हों। लक्ष्य हो विश्व-महाराजन् और कर्म में एक गुण या एक शक्ति भी ऑर्डर नहीं माने, तो वह विश्व का महाराजा कैसे बनेंगे? अपना ही खज़ाना अपने ही काम में नहीं आये तो विश्व का खज़ाना क्या सम्भालेंगे? इसलिए सर्व खज़ानों से सम्पन्न बनो और विशेष वर्तमान समय यही सहज पुरूषार्थ करो कि सर्व से, बापदादा से हर समय दुआए लेते रहें।

दुआए किसको मिलती हैं? जो सन्तुष्ट रह सबको सन्तुष्ट करे। जहाँ सन्तुष्टता होगी वहाँ दुआए होंगी। और कुछ भी नहीं आता हो-कोई बात नहीं। भाषण नहीं करना आता है-कोई बात नहीं। सर्व गुण धारण करने में मेहनत लगती हो, सर्व शक्तियों को कन्ट्रोल करने में मेहनत लगती हो-उसको भी छोड़ दो। लेकिन एक बात यह धारण करो कि दुआए सबको देनी हैं और दुआए लेनी हैं। इसमें कोई मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। करके देखो। एक दिन अमृतवेले से लेकर रात तक यही कार्य करो-दुआए देनी हैं, दुआए लेनी हैं। और फिर रात को चार्ट चेक करो-सहज पुरूषार्थ रहा या मेहनत रही? और कुछ भी नहीं करो लेकिन दुआए दो और दुआए लो। इसमें सब आ जायेगा। दिव्य गुण, शक्तियाँ आपे ही आ जायेंगी। कोई आपको दु:ख दे तो भी आपको दुआए देनी हैं। तो सहन शक्ति, समाने की शक्ति होगी ना, सहनशीलता का गुण होगा ना। अन्डरस्टूड है।

दुआए लेना और दुआए देना-यह बीज है, इसमें झाड़ स्वत: ही समाया हुआ है। इसकी विधि है-दो शब्द याद रखो। एक है ‘शिक्षा’ और दूसरी है ‘क्षमा’, रहम। तो शिक्षा देने की कोशिश बहुत करते हो, क्षमा करना नहीं आता। तो क्षमा करनी है। क्षमा करना ही शिक्षा देना हो जायेगा। शिक्षा देते हो तो क्षमा भूल जाते हो। लेकिन क्षमा करेंगे तो शिक्षा स्वत: आ जायेगी। शिक्षक बनना बहुत सहज है। सप्ताह-कोर्स के बाद ही शिक्षक बन जाते हैं। तो क्षमा करनी है, रहमदिल बनना है। सिर्फ शिक्षक नहीं बनना है। क्षमा करेंगे-अभी से यह संस्कार धारण करेंगे तब ही दुआए दे सकेंगे । और अभी से दुआए देने का संस्कार पक्का करेंगे तभी आपके जड़ चित्रों से भी दुआए लेते रहेंगे। चित्रों के सामने जाकर क्या कहते हैं? दुआ करो, मर्सा (रहम) दो....। आपके जड़ चित्रों से जब दुआए मिलती हैं तो चैतन्य में आत्माओं से कितनी दुआए मिलेंगी! दुआओं का अखुट खज़ाना बापदादा से हर कदम में मिल रहा है, लेने वाला लेवे। आप देखो, अगर श्रीमत प्रमाण कोई भी कदम उठाते हो तो क्या अनुभव होता है? बाप की दुआए मिलती हैं ना। और अगर हर कदम श्रीमत पर चलो तो हर कदम में कितनी दुआए मिलेंगी, दुआओं का खज़ाना कितना भरपूर हो जायेगा!

कोई भल क्या भी देवे लेकिन आप उसको दुआए दो। चाहे कोई क्रोध भी करता है, उसमें भी दुआए हैं। क्रोध में दुआए हैं कि लड़ाई है? चाहे कोई कितना भी क्रोध करता है लेकिन आपको याद दिलाता है कि मैं तो परवश हूँ, लेकिन आप मास्टर सर्वशक्तिवान हो। तो दुआए मिली ना। याद दिलाया कि आप मास्टर सर्वशक्तिवान हो, आप शीतल जल डालने वाले हो। तो क्रोधी ने दुआए दी ना। वह क्या भी करे लेकिन आप उस से दुआए लो। सुनाया ना-गुलाब के पुष्प में भी देखो कितनी विशेषता है, कितनी गन्दी खाद से, बदबू से खुद क्या लेता है? खुशबू लेता है ना। गुलाब का पुष्प बदबू से खुशबू ले सकता और आप क्रोधी से दुआए नहीं ले सकते? विश्व-महाराजन गुलाब का पुष्प बनना चाहिये या आपको बनना चाहिए? यह कभी भी नहीं सोचो कि यह ठीक हो तो मैं ठीक होऊं, यह सिस्टम ठीक हो तो मैं ठीक होऊं। कभी सागर के आगे जाकर कहेंगे-’’हे लहर! आप बड़ी नहीं, छोटी आओ, टेढ़ी नहीं आओ, सीधी आओ’’? यह संसार भी सागर है। सभी लहरें न छोटी होंगी, न टेढ़ी होंगी, न सीधी होंगी, न बड़ी होंगी, न छोटी होंगी। तो यह आधार नहीं रखो-यह ठीक हो जाये तो मैं हो जाऊं। तो परिस्थिति बड़ी या आप बड़े?

बापदादा के पास तो सब बातें पहुँचती हैं ना। यह ठीक कर दो तो मैं भी ठीक हो जाऊं। इस क्रोध करने वाले को शीतल कर दो तो मैं शीतल हो जाऊं। इस खिटखिट करने वाले को किनारे कर दो तो सेन्टर ठीक हो जायेगा। ऐसे रूहरिहान नहीं करना। आपका स्लोगन ही है-’’बदला न लो, बदल कर दिखाओ।’’ यह ऐसा क्यों करता है, ऐसा नहीं करना चाहिए, इसको तो बदलना ही पड़ेगा....। परन्तु पहले स्व को बदलो। स्व-परिवर्तन से विश्व-परिवर्तन वा अन्य का परिवर्तन। या अन्य के परिवर्तन से स्व परिवर्तन है? स्लोगन रांग तो नहीं बना दिया है? क्या करेंगे? स्व को बदलेंगे या दूसरे को बदलने में समय गंवायेंगे? ‘‘चाहे एक वर्ष भी लगाकर देखो-स्व को नहीं बदलो और दूसरों को बदलने की कोशिश करो। समय बदल जायेगा लेकिन न आप बदलेंगे, न वो बदलेगा।’’ समझा? सर्व खज़ानों के मालिक बनना अर्थात् समय पर खज़ानों को कार्य में लगाना।

कई ऐसे होते हैं-कई अच्छी-अच्छी चीजें होती हैं तो खुश होते रहते हैं कि हमारे पास सब-कुछ है। लेकिन जब समय आता है तो याद ही नहीं आयेगा या वह चीज मिलेगी नहीं। कारण क्या होता है? समय-प्रति-समय उसको कार्य में नहीं लगाया। तो सिर्फ देख-कर के खुश नहीं होना लेकिन हर खज़ाने का मजा लो, मौज मनाओ। ज्ञान के खज़ाने से मौज मनाओ, समझ से कार्य करो, सिद्धि को प्राप्त करो, शक्तियों को ऑर्डर पर चलाओ-यह है मौज मनाना। गुणों को स्वयं प्रति कार्य में लगाओ और दूसरों को भी गुण-दान करो, ज्ञान-दान करो, शक्तियों का दान करो। अगर कोई निर्बल है तो शक्ति देकर उसको भी सम्पन्न बनाओ। इसको कहा जाता है भरपूर आत्मा। अच्छा!

सर्व खज़ानों से सम्पन्न आत्माओं को, सर्व खज़ानों को कार्य में लगाने वाले, बढ़ाने वाले ‘ज्ञानी तू आत्माए’ बच्चों को, सर्व खज़ानों को मालिक बन समय पर विधिपूर्वक कार्य में लगाने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को, हर शक्ति, हर गुण की अथॉरिटी बन स्वयं में और सर्व में भरने वाली विशेष आत्माओं को, सदा दुआओं के खज़ाने से सहज पुरूषार्थ का अनुभव करने वाली सहजयोगी आत्माओं को बापदादा का याद, प्यार और नमस्ते।

दादियों से मुलाकात

बापदादा सेकेण्ड में कितनी बातें कर सकता है? समय कम और बातें बहुत। क्योंकि फरिश्ते इशारों से ही समझते हैं। तो यह दृष्टि की भाषा फरिश्तेपन की निशानी है। यह भी बापदादा सिखाते रहते हैं। आजकल के समय प्रमाण अगर वाणी द्वारा किसको सुनाओ तो समय भी चाहिए, साहस भी चाहिए। अगर मीठी दृष्टि द्वारा समझाने का प्रयत्न करते हैं तो कितना सहज हो जाता है! समय अनु-सार यह दृष्टि द्वारा परिवर्तन होना और परिवर्तन कराना-यही काम में आयेगा। सुनाते हैं तो सब कहते हैं-हमको पहले से ही पता है। लेकिन मीठी दृष्टि और शुभ वृत्ति-यह एक मिनट में एक घण्टा समझाने का कार्य कर सकता है। आजकल यही विधि श्रेष्ठ है और अन्त में भी यही काम में आयेगी। फॉलो फादर करते जायेंगे। विघ्न को भी मनोरंजन समझकर चलते रहते हैं। वाह ड्रामा वाह! चाहे किसी भी प्रकार का दृश्य हो लेकिन ‘वाह-वाह’ ही हो। अच्छा है, बापदादा बच्चों की हिम्मत, उमंग-उल्लास देख खुश हैं और बढ़ाते रहते हैं। यही निमित्त बनने की लिफ्ट की विशेष गिफ्ट है। अच्छा!

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

श्रेष्ठ स्थिति का आधार है-श्रेष्ठ स्मृति

सभी को डबल नशा रहता है कि मैं श्रेष्ठ आत्मा मालिक भी हूँ और फिर बालक भी हूँ? एक है मालिकपन का रूहानी नशा और दूसरा है बालकपन का रूहानी नशा। यह डबल नशा सदा रहता है या कभी-कभी रहता है? बालक सदा हो या कभी-कभी हो? बालक सदा बालक ही है ना। परमात्म-बालक हैं और फिर सारे आदि-मध्य-अन्त को जानने वाले मालिक हैं। तो ऐसा मालिकपन और ऐसा बालकपन सारे कल्प में और कोई समय नहीं रह सकता। सतयुग में भी परमात्म-बच्चे नहीं कहेंगे, देवात्माओं के बच्चे हो जायेंगे। तीनों कालों को जानने वाले मालिक-यह मालिकपन भी इस समय ही रहता है। तो जब इस समय ही है, बाद में मर्ज हो जायेगा, तो सदा रहना चाहिए ना। डबल नशा रखो। इस डबल नशे से डबल प्राप्ति होगी-मालिकपन से अपनी अनुभूति होती है और बालकपन के नशे से अपनी प्राप्ति। भिन्न-भिन्न प्राप्तियां हैं ना। यह रूहानी नशा नुकसान वाला नहीं है। रूहानी है ना। देहभान के नशे नुकसान में लाते हैं। वो नशे भी अनेक हैं। देहभान के कितने नशे हैं? बहुत हैं ना-मैं यह हूँ, मैं यह हूँ, मैं यह हूँ.......। लेकिन सभी हैं नुकसान देने वाले, नीचे लाने वाले। यह रूहानी नशा ऊंचा ले जाता है, इसलिए नुकसान नहीं है। हैं ही बाप के। तो बाप कहने से बचपन याद आता है ना। बाप अर्थात् मैं बच्चा हूँ तभी बाप कहते हैं। तो सारा दिन क्या याद रहता है? ‘‘मेरा बाबा’’। या और कुछ याद रहता है? बाबा कहने वाला कौन? बच्चा हुआ ना। तो सदा बच्चे हैं और सदा ही रहेंगे।

सदा इस भाग्य को सामने रखो अर्थात् स्मृति में रखो-कौन हूँ, किसका हूँ और क्या मिला है! क्या मिला है-उसकी कितनी लम्बी लिस्ट है! लिस्ट को याद करते हो या सिर्फ कॉपी में रखते हो? कॉपी में तो सबके पास होगा लेकिन बुद्धि में इमर्ज हो-मैं कौन? तो कितने उत्तर आयेंगे? बहुत उत्तर हैं ना। उत्तर देने में, लिस्ट बताने में तो होशियार हो ना। अब सिर्फ स्मृतिस्वरूप बनो। स्मृति आने से सहज ही जैसी स्मृति वैसी स्थिति हो जाती है। स्थिति का आधार स्मृति है। खुशी की स्मृति में रहो तो स्थिति खुशी की बन जायेगी और दु:ख की स्मृति करो तो दु:ख की स्थिति हो जायेगी। बाप एक ही काम देते हैं-याद करो या स्मृति में रहो। एक ही काम मुश्किल होता है क्या? कभी बहुत काम इकट्ठे हो जाते हैं तो कन्फ्यूज (Confuse; मूँझना) हो जाते हैं-इतने काम कब करें, कैसे करें.....। एक ही काम हो तो घबराने की जरूरत नहीं होती ना। तो बाप ने एक ही काम दिया है ना। बस, याद करो। इसी याद में ही सब-कुछ आ जाता है। तो याद करो कि मालिक भी हैं, बालक भी हैं! रूहानी नशे में रहने से क्या मिलता और भूलने से क्या होता-दोनों अनुभव हैं ना। भूलने की आदत तो 63 जन्मों से है। लेकिन याद कितना समय करना है? एक जन्म। और यह जन्म भी कितना छोटा-सा है! तो ‘सदा’ शब्द को अन्डरलाइन करना। अच्छा! सभी सदा खुश हो ना। यह सोचो कि हम खुश नहीं होंगे तो कौन होगा? माताए भी सदा खुश रहती या कभी-कभी थोड़ी दु:ख की लहर आती है? चाहे कितना भी दु:खमय संसार हो लेकिन आप सुख के सागर के बच्चे सदा सुख-स्वरूप हो। दु:ख में दु:खी हो जाते हो क्या? जानते हो कि संसार का समय ही दु:ख का है। लेकिन आपका समय कौनसा है? सुख का है ना कि थोड़ा-थोड़ा दु:ख का है? संसार में तो दु:ख बढ़ना ही है। कम नहीं होना है, अति में जाना है। लेकिन आप दु:ख से न्यारे हो। ठीक है ना। अच्छा है, मौज में रहो। क्या भी होता रहे लेकिन हम मौज में रहने वाले हैं। मौज में रहना अच्छा है ना।

ग्रुप नं. 2

समस्याओं के पहाड़ को उड़ती कला से पार करो

सभी अपने पुरूषार्थ को सदा चेक करते रहते हो? आपका पुरूषार्थ तीव्र गति का है वा समय तीव्र गति से आगे बढ़ रहा है, क्या कहेंगे? समय तेज है और आप ढीले हो? समय रचता है या रचना है? रचना चाहे कितनी भी पॉवरफुल हो, फिर भी रचता तो रचता ही होगा ना। तो समय का आह्वान आपको करना है या समय आपका आह्वान करेगा? समय आपका आह्वान करे कि आओ मेरे मालिक! तो जैसे समय की रफ्तार सदा आगे बढ़ती जाती है, रूकती नहीं है। चाहे गिरावट का समय हो, चाहे बढ़ने का समय हो लेकिन समय कभी रूकता नहीं है, सदा आगे बढ़ता जाता है। समय को कोई रोकना चाहें तो भी नहीं रूकता है। और आपको कोई रोके तो रूकते हो? रूक जाते हो ना। रूकना नहीं है। कैसी भी परिस्थिति आ जाये, कैसी भी समस्याओं का पहाड़ आगे आ जाये लेकिन आप रूकने वाले हो क्या? उड़ती कला वाले हो ना। तो पहाड़ को भी क्या करेंगे? उड़ती कला होगी तो सेकण्ड में पार कर लेंगे। तो चढ़ती कला वाले हो या उड़ती कला वाले हो? उड़ने वाले कभी रूकेंगे नहीं। बिना मंजिल के अगर उड़ने वाली चीज रूक जाये तो क्या होगा? चलते-चलते प्लेन मंजिल के पहले ही रूक जाये तो एक्सीडेन्ट होगा ना। तो आप भी उड़ती कला वाले हो। उड़ती कला वाले मंजिल के पहले कहाँ रूकते नहीं। या थक जाते हो तो रूक जाते हो?

जहाँ प्राप्ति होती है, प्राप्ति वाला कभी थकता नहीं। बिजनेसमेन को अनुभव है ना। ग्राहक देरी से भी आये तो भी थकेंगे नहीं, आह्वान करते हैं-आओ.....। क्यों नहीं थकते? क्योंकि प्राप्ति है। तो आपको कितनी प्राप्तियाँ हैं? हर कदम में पद्मों की प्राप्ति है। सारे वर्ल्ड में ऐसा साहूकार कोई है जिसको कदम में पद्मों की कमाई हो? कितने भी नामीग्रामी हों लेकिन इतने साहूकार कोई नहीं हैं। चक्कर लगाकर आओ। देखो, विदेश में कोई मिल जाये? कितना भी बड़ा हो लेकिन आपके आगे वह कुछ भी नहीं है। तो इतनी बड़ी प्राप्ति वाले कभी थक नहीं सकते। प्राप्ति को भूलना अर्थात् थकना। उस बिजनेस में तो कितनी मेहनत करनी पड़ती है और मेहनत के बाद भी मिलेगा क्या? चलो, ज्यादा में ज्यादा करोड़ मिल जायें, मिलते तो नहीं हैं लेकिन मिल जायें। और यहाँ तो पद्मों की बात है। तो सदा अपनी प्राप्तियों को सामने रखो। सिर्फ पुरूषार्थ नहीं करो, पुरूषार्थ के पहले प्राप्तियों को सामने रखो। अगर मालूम होता है कि यह मिलना है, तो पुरूषार्थ को भूल जाते हैं, प्राप्ति को ही सामने रखते हैं। उसको पुरूषार्थ दिखाई नहीं देगा, प्राप्ति ही दिखाई देगी। खेती का काम भी करते हैं तो क्या दिखाई देता है? मेहनत दिखाई देती है या फल दिखाई देता है? फल की खुशी होती है ना। तो यह स्मृति रखने से कभी थकेंगे नहीं। न थकेंगे, न गति तीव्र से धीमी होगी, सदा तीव्र गति होगी।

गुजरात वालों की तो तीव्र गति है ना। गुजरात की मातायें भी तीव्र, जल्दी-जल्दी चलती हैं। देखो, गरबा करते हो तो मोटा हो, बूढ़ा हो-कितना जल्दी-जल्दी करते हैं। दूसरे तो देखेंगे कि यह इतना मोटा कैसे करेगा? लेकिन कितना फास्ट करते हैं! तो गुजरात वालों को तीव्र गति की आदत है। जब शरीर तीव्र चल सकता है तो आत्मा नहीं चल सकती? गुजरात की विशेषता ही सदा खुश रहने की है। गुजरात वाले सभी गरबा जानते हैं। बीमार को भी कहो कि रास करने के लिये आओ-तो आ जायेंगे, बिस्तर से भी उठ पड़ेंगे। तो यह निशानी है खुशी की, मौज मनाने की। मौज की निशानी गुजरात में झूला घर-घर में होता है। तो जैसे शरीर की मौज मनाते हो, तो आत्मा को भी तो मौज में रहना है। तो गुजरात का अर्थ हुआ मौज में रहने वाले, खुशी में रहने वाले। लेकिन सदा, कभी-कभी नहीं। गुजरात वालों की कभी भी खुशी कम हो, यह हो नहीं सकता। इतना पक्का निश्चय है या कभी-कभी मूँझ भी जाते हो? जब बाप को अपनी सब जिम्मेवारियां दे दी, तो आप मौज में ही रहेंगे ना। जिम्मेवारियाँ माथा भारी करती हैं। जब भी खुशी कम होती है तो कहते या सोचते हो कि-क्या करें, यह भी सम्भालना पड़ता है ना, करना पड़ता है ना, जिम्मेवारी है ना। उस समय सोचते हो ना। लेकिन जिम्मेवार बाप है, मैं निमित्त-मात्र हूँ। मेरी जिम्मेवारी है-तो भारीपन होता है। बाप की जिम्मेवारी है, मैं निमित्त हूँ-तो हल्के हो जायेंगे। हल्का उड़ेगा। भारी चीज उड़ेगी नहीं, बार-बार नीचे आ जायेगी। थोड़ा भी संकल्प आया-मुझे करना पड़ता है, मुझे ही करना है-तो भारीपन हुआ। तो डबल लाइट हो ना। या थोड़ा-थोड़ा बोझ है? सदा उड़ते रहो। उड़ती कला अर्थात् तीव्र गति।

आप लोग तो बहुत-बहुत भाग्यवान हो जो उड़ती कला के समय पर आये हो। जैसे आजकल के बच्चे कहते हैं ना कि हम भाग्यवान हैं जो बैलगाड़ी के समय नहीं थे, मोटरगाड़ी के टाइम पर आये हैं। आजकल के बच्चे पुरानों को यही कहते हैं कि-आप लोगों का जमाना बैलगाड़ी का था, हमारा जमाना एरोप्लेन का है। तो उन्हों को कितना नशा रहता है! आपको भी यह नशा रहना चाहिये कि हम उड़ती कला के समय पर आये हैं। समय भी, देखो, आपका सहयोग बन गया। तो अच्छी तरह से उड़ो। अपने पास छोटे-मोटे बोझ नहीं रखो-न पुरूषार्थ का बोझ, न सेवा का बोझ, न सम्बन्ध-सम्पर्क निभाने का बोझ। कोई बोझ नहीं। या थोड़ा-थोड़ा बोझ रखना अच्छा है? आदत पड़ी हुई है ना। 63 जन्म से बोझ उठाते आये, बीच-बीच में वह आदत अभी भी काम कर लेती है। लेकिन बोझ उठाने से क्या मिला? भारी रहे और भारी रहने से नीचे गिरते गये। अभी तो चढ़ना है ना। अच्छा! गुजरात वाले कभी भी ऐसे नहीं कहेंगे कि क्या करें, कैसे करें, माया आ गई। माया से डरने वाले हो। या विजय प्राप्त करने वाले हो? लड़ते रहेंगे तो चन्द्रवंशी में चले जायेंगे। इसलिये सदा विजयी। हार खाने वाले नहीं। हार खाना कमजोरों का काम है, ब्राह्मण तो सदा बहादुर हैं। अच्छा!

ग्रुप नं 3

राजयोगी वह जो अपनी कर्मेन्द्रियों को ईश्वरीय लॉ एण्ड ऑर्डर पर चलाये

आवाज में आना सहज लगता है ना। ऐसे ही, आवाज से परे होना इतना ही सहज लगता है? आवाज में आना सहज है। वा आवाज से परे होना सहज है? आवाज में आना सहज है और आवाज से परे होने में मेहनत लगती है? वैसे आप आत्माओं का आदि स्वरूप क्या है? आवाज से परे रहना या आवाज में आना? तो अभी मुश्किल क्यों लगता है? 63 जन्मों ने आदि संस्कार भुला दिया है। जब अनादि स्थान ‘परमधाम’ आवाज से परे है, वहाँ आवाज नहीं है और आदि स्वरूप आत्मा में भी आवाज नहीं है-तो फिर आवाज से परे होना मुश्किल क्यों? यह मध्य-काल का उल्टा प्रभाव कितना पक्का हो गया है! ब्राह्मण जीवन अर्थात् जैसे आवाज में आना सहज है वैसे आवाज से परे हो जाना-यह भी अभ्यास सहज हो जाये। इसकी विधि है-राजा होकर के चलना और कर्म-इन्द्रियों को चलाना। राजा ऑर्डर करे-यह काम नहीं होना है; तो प्रजा क्या करेगी? मानना पड़ेगा ना।

आजकल तो कोई राजा ही नहीं है, प्रजा का प्रजा पर राज्य है। इसलिए कोई किसका मानता ही नहीं है। लेकिन आप लोग तो राज-योगी हो ना। आपके यहाँ प्रजा का प्रजा पर राज्य नहीं है ना। राजा का राज्य है ना। तो बाप कहते हैं-’’हे राजे! आपके कन्ट्रोल में आपकी प्रजा है? या कभी कन्ट्रोल से बाहर हो जाती है? रोज़ राज्य-दरबार लगाते हो?’’ रोज रात्रि को राज्य दरबार लगाओ। अपने राज्य कारोबारी कर्मेन्द्रियों से हालचाल पूछो। जैसे राजा राज्य-दरबार लगाता है ना। तो आप अपनी राज्य-दरबार लगाते हो? या भूल जाते हो, सो जाते हो? राज्य-दरबार लगाने में कितना टाइम लगता है? उन्हों के राज्य-दरबार में तो खिटखिट होती है। यहाँ तो खिटखिट की बात ही नहीं है। अपोजिशन तो नहीं है ना। एक का ही कन्ट्रोल है। कभी-कभी अपने ही कर्मचारी अपोजिशन करने लग पड़ते हैं। तो राजयोगी अर्थात् मास्टर सर्वशक्तिवान राजा आत्मा, एक भी कर्मेन्द्रिय धोखा नहीं दे सकती। स्टॉप कहा तो स्टॉप। ऑर्डर पर चलने वाले हैं ना। क्योंकि भविष्य में लॉ और ऑर्डर पर चलने वाला राज्य है। तो स्थापना यहाँ से होनी है ना।

यहाँ ही ‘आत्मा’ राजा अपनी सर्व कर्मेन्द्रियों को लॉ और ऑर्डर पर चलाने वाली बने, तभी विश्व-महाराजन बन विश्व का राज्य लॉ और ऑर्डर पर चला सकती है। पहले स्वराज्य लॉ और ऑर्डर पर हो। तो क्या हालचाल है आपके राज्य-दरबार का? ऊपर-नीचे तो नहीं है ना। सभी का हाल ठीक है? कोई गड़बड़ तो नहीं है? जो यहाँ कभी-कभी ऑर्डर में चला सकता है और कभी-कभी नहीं चला सकता-तो वहाँ भी कभी-कभी का राज्य मिलेगा, सदा का नहीं मिलेगा। फाउन्डेशन तो यहाँ से पड़ता है ना। तो सदा चेक करो कि मैं सदा अकाल तख्तनशीन स्वराज्य चलाने वाली राजा ‘आत्मा’ हूँ? सभी के पास तख्त है ना। खो तो नहीं गया है? तो तख्त पर बैठकर राज्य चलाया जाता है ना। या तख्त पर आराम से अलबेले होकर सो जायेंगे? तख्त पर रहना अर्थात् राज्य-अधिकारी बनना। तो तख्तनशीन हो या कभी उतर आते हो?

सदा स्मृति रखो कि ‘‘मैं ‘आत्मा’ तो हूँ लेकिन कौनसी आत्मा? राजा ‘आत्मा’, राज्य-अधिकारी ‘आत्मा’ हूँ, साधारण ‘आत्मा’ नहीं हूँ।’’ राज्य-अधिकारी आत्मा का नशा और साधारण आत्मा का नशा- इसमें कितना फर्क होगा! तो राजा बन अपनी राज्य कारोबार को चेक करो-कौनसी कर्मेन्द्रिय बार-बार धोखा देती है? अगर धोखा देती है तो उसको चेक करके अपने ऑर्डर में रखो। अगर अलबेले होकर छोड़ देंगे तो उसकी धोखा देने की आदत और पक्की हो जायेगी और नुकसान किसको होगा? अपने को होगा ना। इसलिए क्या करना है? अकाल तख्तनशीन बन चेक करो।

भविष्य में क्या बनने वाले हो-इसका यथार्थ परिचय किस आधार पर कर सकते हो? कोई आधार है जिससे आपको पता पड़ जाये कि मैं भविष्य में क्या बनने वाला हूँ? लक्ष्य अच्छा रखो। क्योंकि अभी रिजल्ट आउट नहीं हुई है। चेयर्स (कुर्सियों) का गेम (खेल) होता है ना, तो लास्ट में सीटी बजती है। उस लास्ट सीटी पर पता पड़ता कि कौन विजयी होता है। अभी कोई भी फिक्स नहीं हुआ है, सिवाए फर्स्ट नम्बर के। दो तो फिक्स हो गये हैं, अभी 6 में मार्जिन है। लेकिन सुनाया ना-फर्स्ट विश्व-महाराजन या विश्व-महारानी नहीं बनेंगे तो फर्स्ट डिवीजन में तो आयेंगे ना। फर्स्ट नम्बर में एक होता है लेकिन फर्स्ट डिवीजन में बहुत होते हैं। तो फर्स्ट नम्बर में नहीं आयेंगे लेकिन फर्स्ट डिवीजन में आ सकते हैं। वहाँ रॉयल फैमिली का पद भी इतना होता है जितना तख्त-नशीन राजा-रानी का होता है। इसलिए फर्स्ट डिवीजन का लक्ष्य सदा रखना। रॉयल फैमिली वहाँ कम नहीं होती है-इतना ही पद होता है, इतना ही रिगार्ड होता है जितना लक्ष्मी-नारायण का। तो फर्स्ट रॉयल फैमिली में आना भी इतना ही है जितना लक्ष्मी-नारायण बनना। इसलिए पुरूषार्थ करना, चांस है। तो लक्ष्य तो बहुत अच्छा रखा है।

बापदादा ने पहले भी सुनाया कि बापदादा को यही खुशी है जो और किसी भी बाप को नहीं हो सकेगी-जो सभी बच्चे कहते हैं कि हम राजा हैं। प्रजा कोई नहीं कहता। तो एक बाप के इतने रा॰जे बच्चे हों तो कितने नशे की बात है! और सभी लक्ष्मी-नारायण बनने वाले हैं। इसलिए बापदादा को खुशी है। समझा? ये वैरायटी ग्रुप है। लेकिन बापदादा तो सभी को मधुबन निवासी देख रहे हैं। आपकी असली एड्रेस क्या है? बाम्बे है, राजस्थान है, बैंगलोर है... क्या है? नष्टोमोहा बनने की यही सहज युक्ति है कि मेरा घर नहीं समझो। मेरा घर है, मेरा परिवार है- तो नष्टोमोहा नहीं हो सकेंगे। सेवा-स्थान है, घर मधुबन है। तो सदा घर में रहते हो या सेवा-स्थान पर रहते हो? सेवा-स्थान समझने से नष्टोमोहा हो जायेंगे। मेरी जिम्मेवारी, मेरा काम है, मेरा विचार यह है, मेरी फर्ज-अदाई है...-ये सब मोह उत्पन्न करता है। सेवा के निमित्त हूँ। जो सच्चा सेवाधारी होता है उसकी विशेषता क्या होती है? सेवाधारी सदा अपने को निमित्त समझेगा, मेरा नहीं समझेगा। और जितना निमित्त भाव होगा उतना निर्मान होंगे, जितना निर्मान होंगे उतना निर्माण का कर्तव्य कर सकेंगे। निमित्त भाव नहीं तो देह-भान से परे निर्मान बन नहीं सकेंगे। इसलिए सेवाधारी अर्थात् समर्पणता। सेवाधारी में अगर समर्पण भाव नहीं तो कभी सेवा सफल नहीं हो सकती, मेरापन का भाव सफलता नहीं दिलायेगा।

डबल विदेशी विदेश में क्यों गये हो? सेवा के लिए ना। लेकिन हो मधुबन निवासी। भारत निवासी हो या विदेश निवासी हो? भारत की आत्माए हो ना। देखो, अगर आप डबल विदेशी नहीं बनते तो सेवा में भाषाओं की कितनी प्रॉब्लम होती! एक खास स्कूल बनाना पड़ता सब भाषाए सीखने के लिए। अभी सहज सेवा तो हो रही है ना। तो सेवा अर्थ विदेश में पहुँच गये हो। राज्य भारत में करना है ना। विश्व ही भारत बन जायेगा। अमेरिका आदि सब भारत बन जायेगा। अभी तो टुकड़ा-टुकड़ा हो गया है। सभी ने महा-भारत से अपना-अपना टुकड़ा ले लिया है। जो लिया है वो देना पड़ेगा ना। क्योंकि भारत महादानी है, इसलिए सबको टुकड़ा- टुकड़ा दे दिया है। आपको कहना नहीं पड़ेगा कि हमको टुकड़ा दे दो, आपेही देंगे। तो सदैव बेहद का नशा रखो कि हम सभी बेहद के राज्य-अधिकारी हैं! स्व-राज्य की स्थिति द्वारा विश्व के राज्य की अपनी तकदीर को जान सकते हैं। अगर अभी स्वराज्य ठीक नहीं है तो समझ लो-विश्व का राज्य भी पहले नहीं मिलेगा, पीछे मिलेगा। तो सभी के पास दर्पण है ना। नारद को आइना दिया ना कि-’’देखो मैं कौन हूँ? लक्ष्मी को वरने वाला हूँ?’’ तो यह स्वराज्य की स्थिति दर्पण है। इस दर्पण में आप स्वयं ही देख सकते हैं कि क्या बनने वाला हूँ? अच्छा!

ग्रुप नं. 4

हम कल्प-कल्प के विजयी हैं-इस निश्चय से बड़ी बात को भी छोटा बनाओ

सभी को सबसे ज्यादा कौनसी खुशी है? सबसे ज्यादा खुशी की बात यह है कि जिनके ऊपर दुनिया के आत्माओं की कोई नज़र नहीं उनके ऊपर परम आत्मा की नज़र पड़ गई! आजकल के जमाने में चुनाव होता है ना। तो आपको किसने चुना? चुनाव में कोई गड़बड़ हुई है क्या? कोई खर्चा करना पड़ा है क्या? तो बाप ने हम आत्माओं को चुन लिया, अपना बना लिया। दुनिया की नज़र में अति साधारण आत्माए थीं, लेकिन बाप की नज़र में महान आत्माए, विशेष आत्माए हो। तो इसी खुशी में रहो-कल क्या थे और आज क्या बन गये, किसकी नजर में आ गये! दुनिया-वालों ने ठुकरा दिया और बाप ने अपना बना लिया। कितनी ठोकरों से बचा लिया! 63 जन्म ठोकरें ही खाई ना। चाहे भक्ति की, तो भी ठोकरें खाई। अपनी प्रवृत्ति की लाइफ में भी भिन्न-भिन्न प्रकार की ठोकरें खाते रहे। और बाप ने आकर ठिकाना दे दिया। जब ठिकाना मिल जाता है तो ठोकर खाना बन्द हो जाता है। तो ठिकाना मिल गया है ना। तो क्या थे और क्या बन गये! स्वप्न में था कि इतना महान बनेंगे? लेकिन कितना सहज बन गये! कुछ भी मुश्किल नहीं देखनी पड़ी। कितना श्रेष्ठ भाग्य है! तो कौनसा गीत गाते हो? पाना था वो पा लिया। यह गीत आटोमेटिक चलता रहता है। मुख से गाने की आवश्यकता नहीं है लेकिन दिल गाती रहती है। यह दिल की टेपरिकॉर्ड कभी खराब नहीं होती, बार-बार चलाना नहीं पड़ता, स्वत: ही चलती रहती है ना। अच्छा!

सभी ने माया को जीत लिया है? सभी मायाजीत बन गये हो? कि अभी विजयी बनना है? माया का काम है खेल करना और आपका काम है खेल देखना। खेल में घबराना नहीं। घबराते हैं तो वह समझ जाती है कि ये घबरा तो गये हैं, अब लगाओ इसको अच्छी तरह से। माया भी तो जानने में होशियार है ना। कुछ भी हो जाये, घबराना नहीं। विजय हुई ही पड़ी है। इसको कहा जाता है सम्पूर्ण निश्चयबुद्धि। पता नहीं क्या होगा, हार तो नहीं जाऊंगा, विजय होगी वा नहीं........-ये नहीं। सदैव यह नशा रखो कि पाण्डव सेना की विजय नहीं होगी तो किसकी होगी! कौरवों की होगी क्या? तो आप कौन हो? पाण्डवों की विजय तो निश्चित है ना।

कोई भी बड़ी बात को छोटा बनाना या छोटी बात को बड़ी बनाना अपने हाथ में है। किसका स्वभाव होता है छोटी बात को बड़ा बनाने का और किसका स्वभाव होता है बड़ी बात को छोटा बनाने का। तो माया की कितनी भी बड़ी बात सामने आ जाये लेकिन आप उससे भी बड़े बन जाओ तो वह छोटी हो जायेगी। आप नीचे आ जायेंगे तो वह बड़ी दिखाई देगी और ऊपर चले जायेंगे तो छोटी दिखाई देगी। कितनी भी बड़ी परिस्थिति आये, आप ऊंची स्व-स्थिति में स्थित हो जाओ तो परिस्थिति छोटी-सी बात लगेगी और छोटी-सी बात पर विजय प्राप्त करना सहज हो जायेगा। निश्चय रखो कि अनेक बार के विजयी हैं। अभी कोई इस कल्प में विजयी नहीं बन रहे हैं, अनेक बार विजयी बने हैं। इसलिए कोई नई बात नहीं है, पुरानी बात है। लेकिन उस समय याद आये। ऐसे नहीं-टाइम बीत जाये, पीछे याद आये कि ये तो छोटी बात है, मैंने बड़ी क्यों बना दी। समय पर याद आवे कि मैं कल्प-कल्प का विजयी हूँ।

माताओं को नशा है? माताओं का तो भाग्य खुल गया। माताए क्या से क्या बन गई! जिन माताओं को लोगों ने नीचे गिराया, पांव की जुती बना दी, तो पांव सबसे नीचे होता है और जुती तो पांव के भी नीचे होती है, और बाप ने सिर का ताज बना दिया। माताओं को ज्यादा खुशी है ना! तो खुशी में नाचना होता है। तो नाचती हो? पांव से नहीं, मन से खुशी में नाचो। बाप मिला, सब-कुछ मिला। जब बाप को खुशी होती है तो बच्चों को भी खुशी होगी ना। आज के विश्व में और सब-कुछ मिल सकता है लेकिन सच्ची खुशी नहीं मिल सकती। और आपको सच्ची खुशी मिली। बाप को याद भी इसलिए करते हो क्योंकि प्राप्ति है। बाप प्यारा तब लगता है जब वर्सा दे। बाप ने खुशी का खज़ाना दे दिया। इसलिए खुशी-खुशी से याद करते हो। चाहे कोई पद्म खर्च करे लेकिन यह खुशी नहीं मिल सकती। तो आपने क्या खर्चा किया? कोई कौड़ी लगाई? ‘बाबा’ कहा और खज़ाना मिला! तो बिन कौड़ी बादशाह बन गये! लगाया कुछ नहीं और बन गये बादशाह!

सबसे बड़े ते बड़ा बादशाह कौनसा है? (बेफिक्र बादशाह) तो आप बेफिक्र बादशाह हो? या यहाँ आकर बेफिक्र हो, वहाँ जाकर फिक्र होगा? माताओं को फिक्र होगा-बच्चों को क्या करें, पोत्रों को क्या करें? यहाँ भी नहीं है, वहाँ भी नहीं होगा। आजकल के बादशाह हैं फिक्र के बादशाह और आप हो बेफिक्र बादशाह। बच्चे को कोई फिक्र होता है क्या? जब बाप बैठा है तो बच्चे बेफिक्र होते हैं। तो बेफिक्र बादशाह बन गये हो। वैसे भी कोई भी बात का फिक्र करो तो फिक्र करने वाले को कभी भी सफलता नहीं मिलती। फिक्र करने वाला समय भी गंवाता, स्वयं को भी गंवाता, क्योंकि एनर्जी (Energy; शक्ति) वेस्ट होती है, और काम को भी गंवा देता-जिस काम के लिए फिक्र करता वह काम भी बिगाड़ देता। तो सफलता अगर चाहिए तो उसकी विधि है-बेफिक्र बनना। ऐसे बादशाह!

सेवाओं की कोई नई इन्वेन्शन निकालो। लक्ष्य रखने से टाचिंग स्वत: ही होती है। सेवा में आगे बढ़ना अर्थात् स्वयं के पुरूषार्थ में भी आगे बढ़ना। जो सच्ची दिल से सेवा करते हैं वो सदा उन्नति को प्राप्त करते हैं। अगर मिक्सचर सेवा करते हैं तो सफलता नहीं होती, स्वउन्नति भी नहीं होती। अच्छा!

ग्रुप नं. 5

अच्छा बनो तो सर्व इच्छायें स्वत: ही पूरी हो जायेंगी

सदा अपने मस्तक पर विजय का तिलक लगा हुआ अनुभव होता है? अविनाशी तिलक अविनाशी बाप द्वारा लगा हुआ है। तो तिलक है स्मृति की निशानी। तिलक सदा मस्तक पर लगाया जाता है। तो मस्तक की विशेषता क्या है? याद या स्मृति। तो विजय के तिलकधारी अर्थात् ‘सदा विजय भव’ के वरदानी। जो स्मृतिस्वरूप हैं वे सदा वरदानी हैं। वरदान आपको मांगने की आवश्य-कता नहीं है। वरदान दे दो-मांगते हो? मांगना क्या चाहिए-यह भी आपको नहीं आता था। क्या मांगना चाहिए-वह भी बाप ही आकर सुनाते हैं। मांगना है तो पूरा वर्सा मांगो। बाकी हद का वरदान-एक बच्चा दे दो, एक बच्ची दे दो, एक मकान दे दो, अच्छी वाली कार दे दो, अच्छा पति दे दो........-यही मांगते रहे ना। बेहद का मांगना क्या होता है-वो भी नहीं आता था। इसीलिए बाप जानते हैं कि इतने नीचे गिर गये जो मांगते भी हद का हैं, अल्पकाल का हैं। आज कार मिलती है, कल खराब हो जाती है, एक्सीडेन्ट हो जाता है। फिर क्या करेंगे? फिर और मांगेंगे-दूसरी कार दे दो! आप तो अधिकारी बन गये। बेहद के बाप के बेहद के वर्से के अधिकारी बन गये। अभी स्वत: ही वरदान प्राप्त हो ही गये। जब दाता के बच्चे बन गये, वरदाता के बच्चे बन गये-तो वरदान का खज़ाना बच्चों का हुआ ना। तो जब वरदानों का खज़ाना ही हमारा है तो मांगने की क्या आवश्यकता है!

अभी खुशी में रहो कि मांगने से बच गये। जो सोच में भी नहीं था वह साकार रूप में मिल गया। हर बात में भरपूर हो गये, कोई कमी नहीं। आपके देवताई जीवन में भी जो गायन करते हैं उसमें भी सर्व गुण सम्पन्न कहते हैं, थोड़े-थोड़े गुण सम्पन्न नहीं कहते। सर्व गुण सम्पन्न, 16 कला सम्पन्न। 14 कला तो नहीं कहते ना। पुरूषोत्तम कहते हैं, साधारण पुरूष नहीं कहते हैं। पुरूषों में भी उत्तम। तो सर्व अर्थात् सम्पन्न और सम्पूर्ण हो गये। क्योंकि बाप सर्वशक्तिवान है, तो आप सभी भी सर्व बने ना-सर्व गुण सम्पन्न, मास्टर सर्वशक्तिवान। तो इतनी खुशी रहती है? वैसे भी बिना मांगे जो मिलता है उसको अच्छा माना जाता है। तो बाप ने वर्से के अधिकार के रूप में सब दे दिया, अधिकार में कमी नहीं छोड़ी। कोई चीज की कमी है क्या? छोटा मकान है, बढ़िया और बड़ा मकान होना चाहिए-यह सोचते हो? बड़ा मकान मिल जाये तो गीता-पाठशाला खोल दें-यह सोचते हो? यह मांगते हो? मांगना नहीं है। मांगने से मिलना नहीं है। क्योंकि मांगना अर्थात् इच्छा। हद की इच्छा हो गई ना। चाहे सेवा-भाव हो, लेकिन ‘मांगना’-यह राइट नहीं। मांगने की आवश्यकता ही नहीं है, अगर आपका बेहद की सेवा का संकल्प बिना हद की इच्छा के होगा तो अवश्य पूरा होगा। इच्छा रखने वाले की इच्छा पूरी नहीं होगी। लेकिन अच्छा बनने वाले की इच्छा पूरी होगी, स्वत: ही प्राप्ति हो जायेगी। इस-लिए कुछ भी मांगने की आवश्यकता नहीं है। प्राप्ति-स्वरूप हो ना। कि ‘मांगने वाला स्वरूप’ हो? शुभ इच्छा स्वत: ही पूर्ण होती है। सोचेंगे भी नहीं कि क्या होगा, कैसे होगा, लेकिन स्वत: ही प्राप्ति हो जायेगी। यह सोचा था कि हम इतने ऊंचे ब्राह्मण बन जायेंगे? नहीं सोचा था। लेकिन सहज बन गये ना।

सदा भरपूर रहो। भरपूर आत्मा अचल होगी। जो भरपूर नहीं होगा उसमें हलचल होगी। इस समय भी भरपूर बने हो, फिर भविष्य में जब राज्य करेंगे तो भी कितने भरपूर होंगे! कोई कमी नहीं होगी। और जब पूज्य बनते हो तो आपके मन्दिर भी कितने भरपूर हो जायेंगे! भारत के मन्दिरों से और लोग मालामाल हुए। जब जड़ चित्र मन्दिर भी आपके इतने सम्पन्न थे तो आप कितने सम्पन्न होंगे! अप्राप्ति का नाम-निशान नहीं होगा। सतयुग में कोई अप्राप्ति होगी? अभी कोई अप्राप्ति है? सब-कुछ मिल गया! अच्छा, सतयुग में बाप (शिवबाबा) होगा? तो अप्राप्ति हुई या नहीं हुई? हो गई ना। तो सतयुग से भी ज्यादा सर्व प्राप्तियां अभी हैं। कितनी खुशी, कितना नशा है!

सदा यह स्मृति में रखो कि हम ही आधा कल्प राज्य-अधिकारी बनते हैं और आधा कल्प पूज्य आत्माए बनते हैं और संगम पर सर्व प्राप्ति सम्पन्न आत्मा बनते हैं। तो सारा कल्प भरपूर हो ना! क्योंकि इस समय की सम्पन्नता सारे कल्प राज्य के रूप में और पूज्य रूप में चलती है। अभी भी देखो-चाहे कलियुग का अन्त है, फिर भी स्वयं सूखी रोटी खायेंगे लेकिन देवताओं को बढ़िया भोग लगायेंगे। चैतन्य मनुष्यों को रहने का स्थान नहीं होगा, फुटपाथ पर सोते हैं, झोपड़ियां लगाकर सोते हैं और आपके जड़ चित्र कितने विधिपूर्वक मन्दिरों में रहते हैं! तो चैतन्य को जगह नहीं मिलती लेकिन आपके जड़ चित्रों को भी जगह देते हैं! कितने बड़े-बड़े मन्दिर हैं! और मूर्ति कितनी होती है! तीन पैर पृथ्वी चाहिए लेकिन मन्दिर कितने बड़े बनाते हैं! तो इस अन्तिम जन्म में भी आप आत्माए कितनी सम्पन्न हो! जड़ चित्र भी आपके सम्पन्न हैं। तो चैतन्य में भी सम्पन्न हो ना।

सारे कल्प का श्रेष्ठ भाग्य अब मिल रहा है। मिल गया। भाग्यविधाता ने हर बच्चे की सारे कल्प की तकदीर की लकीर खींच दी। सारा कल्प नाम बाला होगा। तो इतना नशा रहता है? समझते हो-हमारी पूजा हो रही है? किसकी पूजा हो रही है? आपका मन्दिर है? या बड़े-बड़े महारथियों के मन्दिर हैं? जो ब्राह्मण बनता है वह ब्राह्मण सो देवता बनता है और देवता सो पूज्य जरूर बनता है। नम्बरवार हैं लेकिन पूज्य जरूर बनते हैं। मन्दिरों में भी नम्बरवार हैं ना। कोई मूर्ति की पूजा देखो कितना विधिपूर्वक होती है! और कोई मन्दिरों में कभी-कभी पूजा होती है। जो कभी-कभी याद में रहता है उसकी मूर्ति की पूजा भी कभी-कभी होती है और जो सदा याद में रहते हैं, सदा श्रीमत पर चलते हैं उनकी पूजा भी सदा होती है। जो हर कर्म में कर्मयोगी बनता है, उसकी पूजा भी हर कर्म की होती है। बड़े-बड़े मन्दिरों में हर कर्म की पूजा होती है-भोजन की भी होगी, झूले की भी होगी, सोने की भी होगी तो उठने की भी होगी। तो जितनी याद उतना राज्य, उतनी पूजा। अभी अपने आपसे पूछो कि मैं कितना याद में रहता हूँ?